अपराधी नहीं, उनके घोड़े मिले : अभयानंद

गंगा का दियर, दिसंबर का महीना, रात्रि का समय। साहेबगंज, जो अब झारखण्ड राज्य में है, वर्ष 1983 में, मैं वहाँ का पुलिस अधीक्षक हुआ करता था। जॉइन किए हुए कुछ ही महीने हुए थे और मैंने सुन रखा था कि गंगा के उस पार दियरा क्षेत्र में अपराधियों का गिरोह रहता है और यदा-कदा वह साहेबगंज शहर में आकर उत्पात भी मचाता है। मैंने उस क्षेत्र में रेड करने की ठान ली। इसका अंदाज था कि रेड मुझे व्यवस्थित ढंग से करनी होगी। बिहार के पूर्व डीजीपी व मशहूर शिक्षाविद अभयानंद ने यह आपबीती लिखी है।

अभयानंद आगे लिखते हैं कि एक स्टीमर, जो मुसाफिरों को गंगा के एक छोर से दूसरी छोर तक ले जाता है, वही साधन था आवागमन का। मैंने स्टीमर के मालिक से बात की और उन्होंने मुझे मदद की, इस मायने में कि मैं पुलिस बल के साथ रात में 10 बजे इस पार से उस पार जा सकूँ।
बिलकुल ठंडी हवा चल रही थी और करीब 45 मिनट स्टीमर पर रहने के पश्चात, उस पार उतर पाया। दियर बिलकुल खुला हुआ था। मीलों-मील तक बालू के अलावा कुछ दिखता नहीं था। पुलिस बल के साथ हम चलना शुरू किए। हमारे पास कोई सूत्र भी नहीं था क्योंकि पुलिस को डर से अपराधियों के सम्बन्ध में कोई व्यक्ति कुछ भी बताने को तैयार नहीं होता था।
रास्ते में फूस की छोटी-छोटी झोंपड़ियाँ थीं जिसमें 2-3 व्यक्ति सो पाते। उसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं दिखता था। हमलोगों ने चलना शुरू किया। अमूमन तो लोग भाग गए थे वहाँ से, पर जहाँ भी कोई मिलता था, उससे कुछ पूछ-ताछ की जाती थी। चलने से शरीर में कुछ गर्मी जरूर होती थी लेकिन बर्फीली ठंडी हवा के सामने, उसका कोई खास मतलब रह नहीं जाता था। हमने बहुत ज्यादा ऊनी कपड़े नहीं पहने थे और पुलिस बल भी संभवतः इतनी ठण्ड के लिए तैयार नहीं थी।

ढाई बजे रात में ठण्ड इतनी बढ़ गई कि हमलोगों ने जो फूस के कमरे बने हुए थे, उसमें आग लगा कर कोशिश की कि शरीर को गर्म किया जाए। परन्तु वह आग बहुत जल्दी बुझ जाती थी क्योंकि फूस बहुत देर तक जल नहीं पाता है, लकड़ी नहीं है वह। हमलोगों को उससे कोई अधिक लाभ नहीं हो पाया। करीब साढ़े 3 बजे रात में यह निर्णय हुआ कि अब इस रेड को बंद किया जाए। तभी कई घोड़े, जो दियर में ही चलते हैं, वह दिख पड़े। मेरे पुलिस बल के लिए यह एक मनोरंजन की सामग्री हो गई और उनलोगों ने घोड़ों को पकड़कर रस्से में बाँधा और उनको भी अपने साथ खींचते हुए, अपनी वापसी के दौर में लाया। हमलोग किसी तरह ठण्ड में ठिठुरते-सिकुड़ते हुए स्टीमर के पास पहुँचे और फिर सवार होकर गंगा के दूसरी छोर पर अर्थात साहेबगंज पहुँचे।

मेरे लिए यह बिलकुल नायाब लग रहा था कि साहेबगंज की जनता उत्साहित थी कि एक पुलिस अधीक्षक दियर में रेड करने गया है। मुझे ऐसी जानकारी मिली कि संभवतः उन्होंने पुलिस की ऐसी कार्यवाई पूर्व में कभी देखी नहीं थी।

सुबह करीब साढ़े 5-6 बजने वाले थे। रेगुलर जो सवारियाँ थी, वह इंतजार कर रही थीं स्टीमर का। और जब साहेबगंज शहर में जानकारी हुई कि पुलिस अधीक्षक पुलिस बल के साथ स्टीमर लेकर दियर में गए हैं रेड करने, तो मुझे ऐसा लगा कि एक अपार भीड़ जमा हो गई वहाँ, यह देखने के लिए कि पुलिस बल उस पार दियर में कैसे गई और क्या हुआ। मेरे लिए यह बिलकुल नायाब लग रहा था कि साहेबगंज की जनता उत्साहित थी कि एक पुलिस अधीक्षक दियर में रेड करने गया है। मुझे ऐसी जानकारी मिली कि संभवतः उन्होंने पुलिस की ऐसी कार्यवाई पूर्व में कभी देखी नहीं थी। वह जानते थे कि पुलिस दियर में जाती ही नहीं है।
मैंने यह निष्कर्ष निकाला कि अगर पुलिस निर्भीक होकर रेड करे, लेकिन तरीके से करे, तो जिस जिले की वह पुलिस है, उस जिले के लोगों में एक असीम उत्साह और विश्वास का सृजन हो जाता है।

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