कुछ राजनेता बुद्धिजीवी और नौजवान कहते हैं मैं तो जात पात नहीं मानता। ऐसा कहने वाले अक्सर जनेऊ धारण करते हैं,अपनी जाति में शादी करते हैं और उसी जाति की संतान पैदा करते हैं, उनका खान-पान, मेल मिलाप, गपशप अपनी या नजदीक की जातियों के साथ ही होता है।
किशन पटनायक (Kishan Patnaik) के बारे में वरिष्ठ नेता शिवानंद तिवारी (Shivanand Tiwary) ने सोशल मीडिया पर लिखा है कि अगर हम जाति में पैदा होते हैं और जाति की संतान पैदा कर रहे हैं, जाति के साथ ही सुख-दुख मनाते हैं तो उस अनुपात में हम जाति के बंधन में हैं ।यह दावा करना बड़ा कठिन है कि ‘मैं पूरी तरह जात को छोड़ चुका हूँ।’ उससे ऊपर उठने की एक निरंतर कोशिश हो सकती है।जो जितना ईमानदारी से इसकी कोशिश करता है, वही जाति व्यवस्था से उतना ही मुक्त माना जा सकता है।जब हम जाति को न मानने का ढोंग करते हैं, लेकिन व्यवस्था के खिलाफ कोई ठोस काम नहीं करते तब जाति का अनुप्रवेश इतना अधिक होता है कि राजनीति और विश्वविद्यालय जैसे सेकुलर कार्यक्रम में भी वह हावी हो जाती है। अगर हमारे विश्वविद्यालय में जाति व्यवस्था का जोर है तो समाज में पुनरुत्थान पर आश्चर्य प्रकट करना हमारी नादानी है।
हमारी राजनीति में जातिवाद और जाति प्रथा के खिलाफ कोई आंदोलन नहीं है तो दलों के अंदर जाति जरूर होगी. भारतीय जनता पार्टी को पुनरुत्थानवादी कहना आसान हो गया है।लेकिन जनता पार्टी,कांग्रेस पार्टी या कम्युनिस्ट पार्टी को क्यों नहीं कहा जाता है ? इनके चोटी के नेता लोग जातिवाद को प्रोत्साहन देते हैं या नहीं? क्या जातिवाद एक पुनरूत्थानवादी मूल्य नहीं है? जो जातिवादी है वह सक्रिय रूप से सांप्रदायिक आचरण न भी करे तो भी सांप्रदायिकता के ऊपर नहीं उठ सकता।जाति-व्यवस्था के खिलाफ आंदोलन न चलाने के फलस्वरूप देश के सारे राजनीतिक दल। पुनरुत्थानवाद के और सांप्रदायिकता के सहायक हैं।किसी ने अभी तक मुझे इस प्रश्न का जवाब नहीं दिया है कि क्यों जम्मू के उत्तर में और गुवाहाटी के पूर्व में किसी भी अखिल भारतीय पार्टी का जीवंत संगठन नहीं बन पाता है? कम्युनिस्ट पार्टी की इकाई भी नहीं चल पाती है।क्या पूर्वी भारत में जहां बंगाली द्विज हिंदू नहीं होंगे वहाँ कम्युनिस्ट पार्टी की सक्रिय इकाई हो सकती है? हिंदू होकर द्विजों की या अपनी जाति की राजनीति करना, हिंदू समाज को बदलने की कोई नीति या कार्रवाई न चलाना, यह अखिल भारतीय राजनीतिक दलों की बेईमानी है, जो अपने को सेकुलर कहते हैं।इनमें से किसी के पास धर्म व्यवस्था और जाति व्यवस्था को बदलने का कोई कार्यक्रम नहीं
है।इसलिए सेकुलर शब्द का उल्टा अर्थ हो गया हैकृसब धर्मों की रूढ़िवादिता को प्रोत्साहित करना ही ‘सेकुलर’ समझा जाता है ।
2020-03-16