Village Girl upset during COVID19-Bihar Aaptak

निगेटिविटी व खौफ के बीच जीने को मजबूर हैं गांवों की लड़कियां!

  • सीवान जिले के एक गांव में रहने वाली बीणा कहती है कि लाॅकडाउन में बाहर रहने वाले घर आ चुके हैं। अब तक हमलोग बेखौफ घूमते थे, पर अब डर के मारे नहीं जा पाते हैं। कई बार खेतों में काम कर रहे लोग हमलोगों को छेड़ते थे, हमारी कोई सुनता नहीं था। इस लाॅकडाउन से हमारी पढाई तो बाधित हुई ही है, एक असुरक्षा की भावना भी आ गई है।
  • समस्तीपुर के एक छोटे से गांव मुसापुर में रहने वाली 15 साल की एक लड़की कहती है कि “अगर कोरोना वायरस का इलाज नहीं मिला, तो हमें इसी तरह घर पर रहना होगा। हम स्कूल नहीं जा सकेंगे। फिर हमारी पढाई का क्या होगा, ऐसे ही लोग हम लड़कियों को स्कूल नहीं भेजना चाहते हैं।”
  • झारखंड के कोडरमा की रहने वाली कुमुद मंडल कहती हैं  “अगर रोजगार नहीं होगा, तो घर का खर्च कैसे चलेगा। कब तक हमलोग कोरोना का रोना रोते रहेंगे। अब तो घर चलाना मुश्किल होता जा रहा है। मजदूरी भी नहीं मिल रही है।”
  • बेगूसराय के ग्रामीण इलाके में रहने वाली 16 गीता डर डर के कहती है कि “मुझे डर है कि मेरा कोरोना टेस्ट पॉजिटिव न आ जाए। लोग इस तरह से डरने लगे हैं कि अब खांसने में भी सोचना पड़ता है कि कहीं सच में मुझे भी कोरोना तो नहीं हो गया है।”
  • सीतामढी में रहने वाली एक स्कूली छात्रा बताती है कि “मुझे अपने परिवार को खोने का डर है। जिस तरह से कोरोना चारों तरफ फैल रहा है, लग रहा है कि अगर मेरे परिवार को भी यह बीमारी हो गई तो मेरा कौन ख्याल रखेगा। पापा मजदूरी करते हैं और इस कारण इधर-उधर जाना पड़ता है, अगर इस दौरान उन्हें सही में यही बीमारी लग गई, तो हमलोग कैसे रहेंगे।”

संजीत नारायण मिश्रा, पटना।
कोरोना महामारी लोगों की जानें तो ले ही रहा है, दिमागी रूप से भी बीमार बना रहा है। लोग डर-डर कर रहने लगे हैं। शहर की बात तो छोड़ें, गांवों में भी लोग सुकून से नहीं है। कमजोर व गरीब तबकों के बच्चों के बीच यह खौफ और भी तेजी से घर कर रहा है। सबसे ज्यादा तो गावों की बच्चियों में एक डर सा समा चुका है। यह हमने जमीनी स्तर पर तो देखा ही, सेव द चिल्ड्रन की एक रिपोर्ट से भी इस बात का खुलासा हुआ है कि लड़कियां उन अनिश्चितताओं को लेकर सबसे ज्यादा चिंतित हैं, जो महामारी के कारण उनके जीवन में आई हैं।
इस रिपोर्ट को एकबारगी देखें तो भारत के शहरी व ग्रामीण लड़कियों के लिए एक डरावना सच दिखता है। इसके अनुसार प्रत्येक चार में से तीन बच्चों में महामारी के बाद से नकारात्मक भावनाएं बढ़ी हैं, इसके कई कारण हैं, जैसे वापस स्कूल जाने में संशय, टीचर्स और दोस्तों के साथ संपर्क न होना, परिवार की आजीविका खोने के कारण असुरक्षा और पारिवारिक हिंसा।
कोरोना महामारी की भयावहता के बीच लाॅकडाउन के दौरान हमने बिहार के कई जिलों की स्थिति जानने की कोशिश की थी। लॉकडाउन के दौरान हमने कई गावों के हालात जाने, जिसे कई रिपोर्ट के माध्यम से प्रकाशित भी किया। इस दौरान गांव की स्थिति शहर से ज्यादा भयावह दिखी। शहर में तो लोग सिर्फ बीमारी से मर रहे हैं, पर गांवों में इसके कारण साइकोलाॅजिकल डर होता जा रहा है, जिससे बच्चे ज्यादा प्रभावित हो रहे हैं। कई बच्चों ने तो डर के मारे यहां तक कहा कि अब उनकी जिंदगी कहीं खत्म न हो जाए। कुछ को लग रहा है कि अब वो कभी पढ ही नहीं पाएंगे।
महामारी के दौरान लगे आर्थिक झटके का वयस्कों और बच्चों के विरूद्ध हिंसा बढ़ने के साथ एक सम्बंध रहा है, साथ ही घरेलू काम और देखभाल का दायित्व बढ़ा है, खासकर लड़कियों के लिये, जिससे मानसिक स्वास्थ्य और सेहत में कमी आई है। सबसे कमजोर बच्चे इसके सामाजिक और आर्थिक प्रभावों के सबसे बड़े शिकार बन रहे हैं। यह देखना दुखद है कि कोविड-19 पैसे और बहुआयामी निर्धनता के दृष्टिकोण से मौजूदा वंचितता को बढ़ाएगा, जिससे बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य और मनोवैज्ञानिक सेहत पर बड़ा प्रभाव होगा।’’

लड़कियों को अब दूसरा ही डर सताने लगा है
बेगूसराय के बछवाड़ा प्रखंड के फतेहा गांव की स्कूल शिक्षक जयंती कुमारी कहती हैं कि कोरोना के कहर के बाद से स्कूल बंद होने से सबसे ज्यादा परेशानी लड़कियों को ही हुई है। ऐसे भी यहां लोग लड़कियों को स्कूल नहीं भेजना चाहते हैं और अब इस महामारी ने उनके मंसूबों को और भी तेज कर दिया है। हालांकि छात्राएं चाहती हैं कि स्कूल जल्दी से खुले। हमें इन महीनों में कई फोन आए, जिसमें वे हमसे पूछती हैं कि मैडम स्कूल कब तक खुलेगा। हमलोग आगे पढ पाएंगे या नहीं, क्योंकि घरवाले कहते हैं यह बीमारी बहुत खतरनाक है और कई सालों तक इसका असर रहेगा।

कोरोना के कहर का डर तो है ही, गांवों में ज्यादा ही है
पटना के सीनियर फिजिशियन डाॅ दिवाकर तेजस्वी से जब हमने इस मामले में बात की, तो उन्होंने कहा कि इस महामारी ने हर किसी के दिल में खौफ पैदा कर दिया है। जब शहर के लोग इतने डरे हुए हैं, तो गांवों में इसका खौफ होना लाजिमी है। सबसे बड़ी बात है कि अभी तक इस महामारी के बारे में बहुत कुछ पता नहीं चल पाया है। इसकी दवा भी कोई असर नहीं कर रही है। ऐसे में गांवों के लोगों को लगता है कि पता नहीं यह जल्दी खत्म होगी भी या नहीं। हमारे पास भी अभी जो मरीज आते हैं चाहे वे किसी भी बीमारी से ग्रस्त हों, कोरोना के बारे में जरूर पूछते हैं कि आखिर यह कब तक खत्म होगी।

घर में बंद रहने से डिप्रेशन में भी जा रहीं बच्चियां
यूनिसेफ के साथ मिलकर रूटीन इम्यूनाइजेशन पर काम कर रहे अविनाश गौतम कहते हैं कि हमलोग अभी अगर किसी गांव में जाते हैं, तो लोग डर के मारे मिलने तक नहीं आते। उन्हें लगता है कि हम कहीं बाहर से आए हैं तो कोई बीमारी न साथ ले आएं। अविनाश कहते हैं कि हालांकि ऐसे लोगों की संख्या भी बहुत है, जो यह मानते हैं कि कोरोना का डर बेकार है। यह आया राम गया राम वाली बीमारी है। कुछ दिन रहेगी, फिर गायब। इसलिए कोई परहेज तक नहीं करते। वहीं, गांवों की लड़कियों के बारे में पूछने पर वे कहते हैं कि परेशानी तो है ही। गांवों में ऐसे भी लड़कियों को पढ़ने में दिक्कत होती है। अब तो स्कूल बंद हो जाने से उनके माता-पिता बाहर तक नहीं निकलने दे रहे हैं। घर में रहने से ज्यादातर लड़कियों में डर व डिप्रेशन जैसी शिकायतें आने लगी हैं।

Livelihood Challenges for Childrens
ऐसा सच जो सोचने पर मजबूर कर देंगी–

– नाइंटी परसेंट लड़कियों का कहना है कि दोबारा स्कूल खुलने के बाद वे वहां नहीं जाएंगे या फिर उन्हें नहीं पता कि वे वहाँ जाएंगे या नहीं।
– आधे से ज्यादा बच्चों ने बताया कि स्कूल बंद होने के बाद से उनका टीचर्स के साथ कोई संपर्क नहीं है।
– इस सर्वे में भाग लेने वाले प्रत्येक 4 में से 3 बच्चों ने महामारी के बाद से नकारात्मक भावनाएं बढ़ने की बात कही है।
– गावों में ज्यादातर परिवारों के पास खाने के लिये पैसा नहीं है।
– डिजिटल लर्निंग की बात तो हम करते हैं, पर दो-तिहाई बच्चों के पास केवल एक या दो प्रकार का लर्निंग मटेरियल है।
– कोविड-19 के कारण अपनी आय खो चुके लगभग लोगों का कहना है कि उन्हें स्वास्थ्यरक्षा या मेडिकल जरूरतों के लिये भुगतान करने में बाधा हुई है।

Protecting Children from Violence
हाशिये पर खड़े कमजोर बच्चे

बता दें कि कुछ इसी विषय पर सेव द चिल्ड्रन की शोध में भारत समेत कुल 46 देशों ने भाग लिया। भारत ने 11 राज्यों और 2 केन्द्र शासित प्रदेशों (दिल्ली और जम्मू एवं कश्मीर) से बड़ा सैम्पल दिया, जिसमें 1598 पैरेन्ट्स और 989 बच्चे (11 से 17 साल के) थे। भारत के सैम्पल में हाशिये पर खड़े और कमजोर बच्चे तथा उनके परिवार थे। इस सर्वे में बिहार, झारखण्ड के लोगों से बात तो की ही गयी थी, पश्चिम बंगाल, असम, राजस्थान, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, उत्तरप्रदेश, दिल्ली, जम्मू एवं कश्मीर, ओडिशा, कर्नाटक और तेलंगाना के गावों की तस्वीर भी दिखने की कोशिश की गयी है।

 

 

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