हमारा समाज आज के समय में एक बड़े अभाव को झेल रहा है। यह अभाव है—नायक का अभाव। जी हां ! हम उस समाज में जी रहे हैं जो नायक विहीन होता जा रहा है। हम जानते हैं कि वास्तव में नायक प्रेरक-शक्ति का पूंज होता है जिसके प्रभाव से हमारा सामाजिक व सांस्कृतिक तथा राजनीतिक जीवन नियंत्रित होता है।
यहाँ प्रश्न यह उठता है कि मनुष्य जब स्वयं एक बौद्धिक प्राणी है,उसे स्वयं तथा दूसरों का भला करने की शक्ति है तो फिर नियंत्रण किस बात का ? इसका उत्तर है- नियंत्रण से आशय उस प्रेरणा-शक्ति से है जो सदैव मनुष्य को स्मरण कराती रहे कि उसे जाना किस राह पे है या कौन सी राह सही है। आकाश में पतंग खुले उड़ती है पर उसको नियंत्रित करती है उसकी डोर। डोर के अभाव में पतंग का दिशा खो देना निश्चित है। इसी तरह मनुष्य के लिये भी ऐसा ही नियंत्रण होना आवश्यक है। और हम में, यह नियंत्रण या अनुशासन ला सकते हैं—हमारे नायक।
लेकिन, हमारे जीवन में नायकों का लोप बड़ी तेजी से हो रहा है या यूं कहें कि व्यवस्था द्वारा लोप किया जा रहा है। उदाहरण के लिये, गांधी की बात करें तो हम देखते हैं कि गांधी लगातार हाशिये पर भेजे जा रहे हैं।
गांधी—जो अहिंसा के सबसे बड़े भक्त थे,जिनका समस्त जीवन-किसी भी समाज को सत्य व अहिंसा की राह पर चलने की प्रेरणा दे सकता है,हमने उनको धीरे-धीरे अहिंसा के पुजारी के पद से अपदस्थ कर स्वच्छता का आग्रही बना कर सीमित कर दिया है।
अब यहां एक प्रश्न यह उठता है कि गांधी के प्रसार व प्रभाव को सीमित करने के पीछे कौन सी सोच काम कर रही है ? वो कौन सी विचारधारा है जो गांधी-रथ के पहिए पर लगातार चोट कर रही है उसकी दिशा को निर्देशित व नियंत्रित करने का प्रयास कर रही है और ऐसा करने से उसे क्या लाभ ?
प्रश्न जितने उलझे प्रतीत हो रहे हैं, उत्तर उतना ही स्पष्ट है। दरअसल गांधी को रास्ते से हटाने के सारे प्रयास व प्रपंच के पीछे बस एक सोच काम कर रही है वो ये कि गांधी सीमित करने के बहाने उस सोच को जनता के जेहन मिटाना है जो जातीय या मजहबी या किसी भी प्रकार की हिंसा को करते वक्त हमें रोकने या सोचने पर विवश करे। क्योंकि गांधी ही वो समर्थ सोच हैं जो देश में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष फैली हिंसा और घृणा को रोक सकते हैं, उन्हें विलोपित कर सकते हैं। लेकिन देश के एक राजनीतिक तबके की राजनीति का आधार ही यही हिंसा या घृणा है, इसलिए उस तबके के पास यही एक विकल्प है कि अपनी राजनीति को बचाने के लिए गांधी को सीमित किया जाए। आम जनता के जीवन से अहिंसा, सत्य, बंधुत्व जैसे विचारो का लोप कर दिया जाए और यह तभी संभव है जब गांधी का विलोपन हो।
दो पल ठहर के, इन बातों के दौरान यदि विस्तृत कैनवास पर वर्तमान का राजनीतिक चित्र बनाने का प्रयास करें तो हम पाएंगे कि सत्ता सिर्फ गांधी को ही सीमित नहीं कर रही है बल्कि वह अन्य नायकों को भी बस मूर्तियों तक या दीवार पे टांगे जाने वाले कैलेंडर तक सीमित करने का उद्यम कर रही है। उदाहरण के लिए नेताजी सुभाष चंद्र बोस को लेकर की गई सत्ता की नई घोषणा को भी देख सकते हैं जिसमे कहा गया है कि उनकी 125वीं जयंती के अवसर पर इंडिया गेट पर उनकी मूर्ति स्थापित की जाएगी। क्या ये एक अवसर नहीं होता कि मूर्ति के साथ ही उनके नाम से एक नया विश्वविद्यालय खोला जाता, जिसमें नेताजी बोस के देश के प्रति विचारों को पढ़ने, सीखने, आत्मसात करने का अवसर मिलता।

बात फिर,गांधी की करते हैं। गांधी के देश में आज जहाँ लोग बात-बात पर हिंसा पर उतारु हो रहे हैं,फिर चाहे वह हिंसा प्रत्यक्ष हो या अप्रत्यक्ष-ऐसे में गांधी के विचारों को घर-घर पहुँचाने के लिये सत्ता ने कितने सम्मेलन किये हैं, कितने सम्मेलनों का सजीव प्रसारण टीवी पर हुआ है—यह एक बड़ा प्रश्न है।
अभी कुछ ही महीने पहले की बात है,अमेरिका के निवर्तमान राष्ट्रपति ट्रंप का भारत दौरा होता है, ‘नमस्ते ट्रंप’ जैसा एक मेगा इवेंट आयोजित होता है और ट्रंप का भाषण जिसे हिंदी भाषी देश ठीक से समझ नहीं पाता—कम से कम गांवों में बसने वाला भारत तो ठीक से नही ही समझ पाता—उसका सजीव प्रसारण होता है। यही नहीं साप्ताहिक स्तर पर ‘मन की बात’ जैसे कार्यक्रम का आयोजन होता है, छोटी से छोटी उपलब्धि के लिए भी बड़े से बड़ा इवेंट आयोजित होता है लेकिन…गांधी के विचारों पर केंद्रित न तो कोई प्रतिबद्ध कार्यक्रम होता है न ही उसका सजीव प्रसारण—जिससे वह आम जनता तक पहुंच सके। यह कुछ नही नायक को भुलाने का प्रयास भर है।
लेकिन, मैं यह बात भी इसमें जोड़ना चाहुँगा कि इसमें सिर्फ सत्ता की या किसी एक राजनीतिक तबके की गलती भर नही है। यह असल में हमारी भी कमी उजागर करती है। असल में, गांधी सत्याग्रह आत्मानुशासन तथा संयम की बात करते हैं—और हमें आदत हो गयी है इवेंट की। गांधी आत्ममूल्यांकन की बात करते हैं और हमें आदत हो गयी है ताली बजाने की। गांधी नये नारों को गढ़ने की बात बात करते हैं, जबकि हमें आदत हो गयी है दूसरों के पक्ष में नारे लगाने की। असल में हम वह पतंग हो गये हैं जो अपनी डोर स्वयं काट रहा है या सत्ता द्वारा कटते हुये देख रहा है—तालियां बजाते, नारे लगाते। स्वयं विचार करें।

आनन्द प्रकाश
असिस्टेंट प्रोफ़ेसर,
(राजधानी कॉलेज व कार्यकारिणी सदस्य
दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षक संघ)
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