प्रधानमंत्री का भाषण अपेक्षा के अनुकूल था। बिना लाग लपेट के 21 दिनों तक खुद को सख्तायी से घरों में कैद रखने का आह्वान पूरी तरह नागरिकों को बचाने व देशहित में है। लोगों को कष्ट जरूर होगा लेकिन सारे देशवासी जरा ठंडे मन से सोचें। अगर पूरे देश में एक साथ लॉकडाउन घोषित होने में और देरी या कोताही होती तो क्या होता। महीने भर बाद सारे हंसते खेलते हजारों परिवारों की चीख पुकारें निकलेंगी तब क्या होगा। तब हम सब मिलकर इसी सरकार को दोष देते न कि क्यों नहीं पहले लॉकडाउन किया था।
याद रहे कि कोरोना एक तरह से सूखे जंगल तेज हवाओं के झोंको में मिनटों में विकराल आग की तरह फैलने वाली ऐसी अदृश्य महामारी है जो बिना शक्ल सूरत के एकदम निराकार है। भयावह इतनी कि उसमें एक ही झटके में शहरों के शहर मुर्दानी में तब्दील करने का माद्दा है। अब 21 दिन तक घरों में भीतर से सपूंर्ण तालाबंदी कर देशवासी अपने घरों की चहारदीवारी के भीतर रहेंगे। ऐसा कर देशवासी स्वयं पर अपने परिवार व समाज व देश पर बहुत बड़ा उपकार करेंगे।
इस खतरनाक वायरस की काट के लिए दुनियाभर में अभी तक कोई वैक्सीन या दवा नहीं बनी। हालांकि वैज्ञानिक दिन रात काम पर जुटे हुए हैं। हो सकता है आने वाली किसी खुशनुमा सुबह को कोरोना की मारक दवा की खोज से जुड़ी कोई अच्छी खबर मिले। अभी तक जो कुछ उपचार हो रहा, वह अमेरिका, चीन, इटली, जर्मनी जैसे देशों में हाल में हुई भीषण मानव त्रासदी के बीच कुछ प्रयोगों के आधार पर गोते लगाने जैसी बातें हैं।
भाषण के पहले ऐसी उम्मीद बंधी थी कि पीएम मोदी ऐसे लोगों के बारे में भी सोचेंगे जिनकी तादाद मोटे तौर पर खाने, कमाने वालों को मिलाकर 100 करोड़ होगी। ये वे लोग हैं जो देश भर में सुबह से शाम तक अपनी गुजरबसर करने के लिए जी तोड़ मेहनत करते हैं। इतनी बड़ी आबादी में ज्यादातर हिस्सा असंगठित क्षेत्र है। सरकारी व सार्वजनिक उपक्रमों, अर्धसरकारी क्षेत्र के कर्मचारी तो बहुत सीमित तादाद में हैं। अनौपचारिक क्षेत्र की नोटबंदी के बाद जीएसटी और आर्थिक मंदी ने कमर तोड़ कर रखी हुई है। पर्यटन के जरिए प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष तौर पर लाखों लोगों की रोजी रोटी खत्म हो गई।
जिन लोगों ने बैंकों से कर्ज लेकर होटलों व रेस्तरां में लाखों लोगों को रोजगार दे रखा था, उनके बैंक की किश्तें और ब्याज कैसे अदा होगा। होटल, मॉल आदि बंद हैं तो रोजी रोटी छिन चुके लोगों को अब खाली बैठककर वेतन कहां से मिलेगा। दिहाड़ी मजदूर, कुल्लियों व सड़कों पर रेहड़ी पटरी व फेरी लगाकर परिवार का भरण पोषण करने वाले कैसे जिंदा रहेंगे। आने वाले दिनों में गांवों, खेती , किसानों व पर्यटन के अलावा सभी क्षेत्रों के लिए आर्थिक पैकेज का तानाबाना घोषित करना होगा। ऐसी मांग इस क्षेत्र में बहुत जोर से उठ रही है।
इस महामारी की विकरालता से एक बात तो बहुत साफ हो गई कि विपदाएं आने पर केवल निर्वाचित सरकार से लोगों की आस-उम्मीदे बंधी होती है, क्योंकि जनता ने सत्ता में आने के लिए सरकार को वोट देकर चुना है। किसी अंबानी, अडानी और टाटा, बिड़ला, एयरटेल, एस्सार, आईटीसी या लार्सन एंड टूर्बो के मालिक के यहां गरीब और वंचित लोग अपने हक का मांग पत्र देने नहीं जाते। दुख यह है कि हाल में देश की सारी बेशकीमती संपदाओं का निजीकरण कर इन्हीं लोगों के सुपुर्द हमारी सरकारें कर रही हैं। कांग्रेस थी तो उसके इस तरह के कदमों का बीजेपी और हम मे बहुत सारे भी विरोध करते थे ।
इस महामारी से निपटने के लिए आधुनिक अस्पताल बनाने को कई खरब रुपए का बजट चाहिए। निजी क्षेत्र के फाईव स्टार अस्पतालों के कपाट गरीबों के लिए बंद हैं। तो फिर देश की बेशकीमती, महारत्नों की अपार सपंत्तियां इन बड़े उद्योगपतियों को औने पौने भाव क्यों बेची जा रही हैं। औचित्य क्या है। सरकार सत्ता चलाने को तनखाहें बांटने, सत्ता की ठसक, शान शौकत और पीएम व मंत्रियों के आगे पीछे दर्जनों बख्तरबंद मोटर कारों व सुरक्षा के दलबल पर सालाना हजारों करोड़ रुपए कब तक स्वाहा करती जाएगी। आए दिन नक्सलियों के हाथों हमारे सुरक्षा बलों का खून ऐसा ही बहता रहा तो लोकतंत्र का मायाजाल कैसे, कितने दिन टिक सकेगा।
(यह लेख वरिष्ठ पत्रकार उमाकांत लखेड़ा के फेसबुक वाल से लिया गया है.)